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थोड़ी देर के बाद जब चिराग दुबारा रोशन हुआ तो देखा की सब के सब लोग वैसे ही बैठे थे, इमाम हुसैन के खिताब को सुनने के बाद आप के भाइयो, बेटो और बाकी सभी लोगो ने एक स्वर मे जवाब दिया कि क्या हम लोग सिर्फ इस लिए चले जाए कि आप के बाद ज़िंदा रहे ?? खुदा हम लोगो को यह दिन न दिखाये, ग़रज़ कि कोई भी इमाम हुसैन को अकेला छोड़ कर नहीं गया !!
तीन दिन का यह भूखा, प्यासा कुनबा रात भर इबादत और अल्लाह का ज़िक्र करता रहा !! इस ही रात ( 9 मुहर्रम की रात ) को इस्लाम मे शबे आशूर के नाम से जाना जाता है
दस मुहर्रम 61 हिजरी : क़यामत का दिन
शबे आशूर ख़त्म हुई और दस मुहर्रम का सूरज निकाल आया, इमाम हुसैन ने अपने साथियो के साथ नमाज़-ए फज्र अदा किया, यह नमाज इन शहीदो की आखरी नमाज़ थी !! इमाम हुसैन की तरफ सिर्फ 72 ऐसे लोग थे जो मुक़ाबले मे जा सकते थे, यह मुकाबला था एक पूरी फौज से जो हर तरह के फौजी साजोसमान से लैस थी !! इमाम हुसैन ऊठ पे सवार हुए कुरान मँगवा कर अपने सामने रखा और अल्लाह से यह दुआ मांगी !!
“ऐ अल्लाह ! हर मुसीबत मे तू ही मेरा एतिमाद और हर तकलीफ मे तू ही मेरा आसरा है ! तमाम हवादसात मे तू ही मेरा सहारा और ढारस है ! बहुत से ग़म ओ अन्धो ऐसे होते है जिन मे दिल बैठ जाता है और इन ग़मओ से रिहाई की तदबीर कम हो जाती है ! दोस्त इसमे साथ छोड़ देते है और दुश्मन इस से खुश होते है लेकिन मैं ने इस किस्म के तमाम औफ़ात मे तेरी ही तरफ रुजू किया तुझ ही से अपना दर्दे दिल कहा, तेरे सिवा किसी और से कहने को दिल न चाहा !! ऐ अल्लाह तूने हर बार इन मसाहेब को मुझ से दूर कर दिया और मुझे इन से बचा लिया तू ही हर नेमत का वली, हर भलाई का मालिक और हर खुवाहिश ओ रग़बत का मुंतहा है !!”
इसके बाद इमाम हुसैन ने याजीदी फौज को मुखातिब करते हुए कहा कि बताओ तुम लोग मेरे खून के प्यासे क्यो हो, क्या मैंने किसी को कत्ल किया ? या किसी का माल बर्बाद किया ? या किसी को ज़ख्मी किया जिसका तुम मुझ से बदला लेना चाहते हो ,, इन बातों का याजीदी फौज के पास कोई जवाब न था !! फिर आप ने कुछ लोगो का नाम लेकर पूछा कि क्या तुम लोगो ने मुझ को खत लिख कर अपने पास नहीं बुलाया था !! फिर फरमाया कि ऐ लोगो जब तुम मुझे पसंद नहीं करते हो तो मुझे छोड़ दो ताकि मैं किसी अमन वाली जगह कि तरफ चला जाओ !! इन सभी बातों का याजीदी फौज पर कोई असर न हुआ !! इब्न साद ने पहला तीर इमाम कि तरफ चलाया और कहने लगा कि सब गवाह रहना कि पहला तीर हम ने चलाया, इस के साथ ही याजीदी फौज मे जंग के नगाड़े बजने लगे और दूसरे लोगो ने भी तीर चलना शुरू कर दिया !! उस वक्त की लड़ाई मे दस्तूर यह था की पहले कुछ योधा दोनों तरफ से निकलते थे और मुक़ाबला करते थे !! एक एक करके इमाम हुसैन के चाहने वाले अपनी जानो को इमाम पर क़ुर्बान करते जा रहे थे !!
इमाम हुसैन के 6 माह से साहबज़ादे अली असग़र का जब प्यास से बुरा हाल हो गया था !! हज़रत अली असग़र की माँ सय्यदा रबाब ने इमाम से कहा की इसकी तो किसी से कोई दुश्मनी नहीं है शायद इस को पानी मिल जाए !! जब इमाम हुसैन इस 6 माह के बच्चे को लेकर निकले और याजीदी फौज से कहा की कम से कम इसको तो पानी पिला दो इसके जवाब मे याजीद के फौजी हरमला ने इस 6 माह के बच्चे के गले का निशाना लगा कर ऐसा तीर मारा तो हज़रत अली असग़र के हलक को चीरता हुआ इमाम हुसैन के बाज़ू मे जा लगा !! बच्चे ने बाप का हाथ पर तड़प कर अपनी जान दे दी !! इमाम हुसैन के काफिले का यह सब से नन्हा शहीद था !!
धीरे धीरे इमाम के जाँ निसार अपनी जानो को इमाम के कदमों पर निछावर करते गए और अब खेमे मे सिर्फ इमाम हुसैन और उनके बीमार बेटे इमाम जाइनुलआबीदीन रह गए थे ! इमाम जाइनुलआबीदीन इस क़दर कमज़ोर और बीमार थे की ठीक से खड़े भी नहीं हो पा रहे थे फिर भी उन्हों ने बाहर जाने की इजाज़त मांगी, इमाम हुसैन ने उनको अपनी आगोश मे लिया प्यार किया और फरमाया की “बेटे अभी तुम्हारा वक्त नहीं आया है अभी तो तुम्हें अपनी माँओ और बहनो को देखना है, उनको वापस वतन तक ले जाना है ! देखो सब्र करना और साबित कदम रहना और राहे हक (सच्ची राह ) मे आने वाली हर तकलीफ और मुसीबत को बर्दाश्त करना !! हर हाल मे नाना जान की शरीयत और सुन्नत पर अमल करते रहना !! बेटा परेशानिओ का सामना करते करते जब कभी मदीना पहुचना तो सब से नाना जान ( मोहम्मद साहब) के रौजे (कब्र) पर जाना, मेरा सलाम कहना और सारा आंखो देखा हाल सुनना, फिर मेरी माँ सय्यदा फातिमा की कब्र पर जाना और मेरा सलाम कहना फिर मेरे भाई हज़रत हसन की कब्र पर जाना और मेरा सलाम कहना,, मेरे बाद तुम ही मेरे जाँ नशीन हो !! इसके बाद इमाम हुसैन ने अपना साफा ( पगड़ी ) इमाम जाइनुल आबीदीन को पहनाया और वापस बिस्तर पर लिटा दिया ! इस के बाद इमाम हुसैन औरतो के खेमे मे आए सलाम किया,, बीबियो ने जब यह मंज़र देखा तो इन के चेहरो के रंग उड़ गए और आंखो आँसू टपकने लगे ! इमाम हुसैन की बहनो ने कहा की “भय्या”, बेटी सकीना के कहा “बाबा जान” आप हम लोगो को इस जंगल मे किसके सुपुर्द करके जा रहे है, इन दरिंदों ने 6 माह के बच्चे को भी नहीं छोड़ा फिर हमारे साथ क्या सुलूक करेगे !! आप ने फरमाया अल्लाह तुम्हारा हाफिज़ और निगहबान है , सब्र करना और अल्लाह की मर्ज़ी पर साबिर और शुक्रगुजार रहना !!
अब खुद इमाम हुसैन घोड़े पे सवार हो कर मैदान की तरफ चले !! एक एक करके याजीदी फौज के सूरमा मुकाबला करने आते लेकिन इमाम हुसैन के आगे टिक न पाते, धीरे धीरे याजीदी फौज मे दहशत तारी होने लगी ! जब यह मंज़र इब्न साद ( याजीदी कमांडर ) और उसके सलहकारो ने देखा तो तय किया कि इमाम पर चारो तरफ से तीर कि बारिश की जाए, फिर क्या था इमाम हुसैन पर चारो तरफ से तीरो की बारिश शुरू हो गयी और इमाम को एक जगह ठहरना पड़ा, चारो तरफ से तीर आ रहे थे और इमाम हुसैन का जिस्म तीरो से छननी हो रहा था, एक तीर आ कर इमाम के माथे पर लगा और इमाम हुसैन घोड़े से ज़मीन पर आ गिरे !! इमाम हुसैन का सर सजदे मे था और शिमर (लानती) ने अपने खंजर से उनकी गर्दन को काट कर सर को बदन से जुदा कर दिया !! इस तरह करबला की यह बस्ती 10 मुहर्रम को उजड़ गयी !!
उस वक्त हज़रत इमाम हुसैन की उम्र 56 साल 5 महीने और 5 दिन थी !!
इमाम हुसैन की शहादत ने पूरी दुनिया तो एक पैगाम दिया है की हक और बातिल ( ज़ुल्म और ज़बरदस्ती ) के आगे किसी भी हाल मे झुकना नहीं चाहिए, सच्चाई और ईमानदारी के लिए कोई भी कुरबानी देने के लिए तैयार रहना चाहिए !! आज दुनिया मे हर तरफ इमाम हुसैन के मानने वाले है और उनको याद करके आज भी लोग रोते है जबकि याजीद का नाम लेवा कोई नहीं है !! यह एक तथ्य है की जब से दुनिया बनी है और आज तक किसी एक व्यक्ति के लिए लोग इतना नहीं रोये है, इतने आँसू नहीं बहाये गए है जितने इमाम हुसैन के लिए बहाये गए है, हर साल करोड़ो लोग उनकी मज़ार पर हाज़िर होते है और पूरी दुनिया मुहर्रम के इन 10 दिनो मे उनको याद करती है ! जब तक दुनिया मे इंसानियत और हक रहेगा इमाम हुसैन का नाम रहेगा
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